- डॉ. दीपक पाचपोर
भारत की स्वतंत्रता संग्राम की चमकदार विरासत में जिन्हें अंधकार नज़र आता है वे देश के मूर्धन्य व विश्वप्रसिद्ध इतिहासकारों को वामपंथी विचारधारा से प्रभावित, पश्चिमपरस्त, हिन्दूविरोधी, देशविरोधी, राष्ट्रद्रोही सब कुछ कह डालते हैं क्योंकि ये विद्वान वस्तुस्थिति को कहते-लिखते आये हैं। कुछ लोगों के मन में इस कदर नफरत बैठा दी गयी है कि वे उनकी विचारधारा से अलग होने के कारण एक जगविख्यात इतिहासवेत्ता को 'गुंडा' कहने से भी परहेज नहीं करते। राम पुनवानी, इरफान हबीब, रोमिला थापर, रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार सभी उनके निशाने पर हैं।
आज भारत इतिहास लेखन के पुनर्लेखन व पुनर्पाठ के दौर में गुजर रहा है जिसके तहत 'वामपंथियों द्वारा लिखे गये कथित झूठे इतिहास' की गलतियां ठीक की जा रही हैं। इसके अंतर्गत भारत की वास्तविक आजादी और उसके कथित लीज़ पीरियड की तारीखों को रिसेट किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि कैसे हमारे 7 लाख से अधिक गुरुकुल नष्ट कर दिये गये और यह भी जानकारी दी जा रही है कि किस तरह से गांधी-नेहरू की जोड़ी ने भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और सरदार पटेल के नेतृत्व को उभरने नहीं दिया। हमारा इतिहास जिस शीघ्रता से तथा विभिन्न आयामों के जरिये पुनर्परिभाषित हो रहा है उससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब अगली पीढ़ियों को वह इतिहास सुनने और पढ़ने को मिलेगा जो अब तक उपलब्ध नहीं था। राजनीति एवं सत्ता की केन्द्रीय शक्ति में इतिहास नये सिरे से लिखने की उत्कंठा ऐसी तीव्र है कि वह स्वयं इस अभियान का नेतृत्व कर रही है।
इतिहास के बिन्दु सामाजिक परिवर्तनों एवं घटनाक्रमों के ढेर से ही निकालने होते हैं, और जब इतिहास का उद्देश्य ज्ञानार्जन या समाज का गंभीर अध्ययन नहीं बल्कि सत्ता पाना अथवा बचाए रखना हो तो उस इतिहास का कबाड़ बनना तय है। अतीत की अनगिनत घटनाओं व चुनींदा परन्तु महत्वपूर्ण परिघटनाओं के ढेर से हर समझदार समाज एवं देश सामाजिक ऊर्जा का निर्माण करते हैं, लेकिन क्षुद्र उद्देश्यों से इतिहास का पढ़ना-पढ़ाना, उसे लिखना-लिखवाना, उसके निहितार्थ निकालना और किसी न किसी रूप में प्रसारित कर उसकी पुन: प्रस्तुति एक राष्ट्रीय भंगार का ही निर्माण करती है। ऐतिहासिक घटनाक्रम अपनी गति एवं घटनाक्रमों से चलता है जिसमें विभिन्न कालखंडों में आने वाले कुछ पात्र अपने कर्तत्व से बदलाव लाते हैं। सैकड़ों साल के बाद तो क्या कहें, उस लम्हे के निकल जाने के बाद तुरन्त बाद भी जो पीढ़ियां आती हैं वे उसमें अपने मनमाफिक या उपयोग के लायक बदलाव नहीं कर सकतीं- चाहें तो भी। यह भी सच है कि किसी गौरवशाली इतिहास को भंगार बनाने से किसी स्वस्थ, वैज्ञानिक एवं आधुनिक समाज-देश-राष्ट्र का कतई निर्माण नहीं हो सकता।
इतिहास को कबाड़ में परिवर्तित करने की अपनी अनवरत कोशिशों के चलते भारत की शीर्ष सत्ता न केवल देश के अंदर रहने वाली पढ़ी-लिखी जमात, बुद्धिजीवियों के बीच निराशा की भावना भर रही है बल्कि दुनिया भर में यहां से निकलकर पहुंचती खबरें भारत की छवि को हास्यास्पद बना रही हैं। मध्ययुगीन भारत चाहे पश्चिमी जगत में संपेरों, बाजीगरों और नट-नटनियों के देश के नाम से प्रचारित किया जाता रहा हो लेकिन 19वीं सदी का अंत आते-आते हमारे नवजागरण काल में आधुनिकता और वैज्ञानिकता को लेकर बहुत बड़ी चेतना का आगमन हुआ था, जिसे अशिक्षा, पिछड़ेपन, रुढ़िवादिता के बावजूद भारत ने बड़ी तेजी से अंगीकार किया था। इसका श्रेय हमारे तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं बौद्धिक नेतृत्व को जाता है।
गांधी ने जहां भारतीयता के साथ हमारी राजनीति में सम्प्रभुता, नागरिक स्वतंत्रता, बन्धुत्व और समानता के आधुनिक मूल्यों की स्थापना की थी, वहीं आजादी के लिये संघर्षरत अलग-अलग धाराओं के नेताओं में कॉमन फैक्टर यही था कि वे सारे आधुनिक बोध से सज्जित थे। मध्ययुगीन पिछड़ेपन से उपजे अंधविश्वासों, तत्कालीन धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं या तथ्यों की तोड़-मरोड़ को कभी भी उन्होंने अपनी लड़ाई का हथियार नहीं बनाया था। वे जानते थे कि एक तिहाई दुनिया पर राज करने वाला औपनिवेशिक ब्रितानी साम्राज्य अपने काल का सबसे आधुनिक समाज है जिसका मुकाबला नवयुगीन व आधुनिक संस्कारों तथा मूल्यों से किया जा सकता है, और ऐसा ही किया भी गया। हमारे साहित्य एवं पत्रकारिता ने नवाचार एवं युगबोध को आवाज़ दी थी।
ब्रिटिश प्रेस का मुकाबला भारतीयता के रंग में डूबी देशी पत्रकारिता ने किया, हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य रचा गया, पश्चिम की शोषणकारी अर्थव्यवस्था के मुकाबले स्वदेशी एवं गांवों की आत्मनिर्भरता की बात की गयी। इसे वक्त की तिर्यक रेखा ही कहा जा सकता है कि आजादी की ऐसी चैतन्य परम्परा से विकसित राष्ट्र का अमृत काल आते-आते हम इतिहास बोध की ऐसी गर्त में गिर जायेंगे, जिसकी किसी ने कल्पना तक न की होगी। आज इतिहास को तटस्थ, तार्किक, वैज्ञानिक, आधुनिक एवं गौरवयुक्त नज़रिये से देखने की बजाय उसमें हिन्दू बनाम मुसलिम या इसाई के संघर्ष के विकसित किये जाने योग्य बीज ढूंढ़े जाते हैं।
पिछले लगभग एक दशक से यह शिकायत एक तबके के द्वारा लगातार उठायी जाती है कि अब तक इतिहास को तोड़-मरोड़कर लिखा और बतलाया गया है। उनका आरोप है कि हिन्दू राजाओं की उपेक्षा कर केवल विदेशी शासकों का महिमा मंडन हुआ है। यह बात उन लोगों के द्वारा उठाई जाती है जो हर मुद्दे का उपयोग समाज को विभाजित करने में प्रवीण हैं। ये लोग ऐतिहासिक तथ्यों के विखंडनकारी बिन्दुओं को इस कदर तोड़-मरोड़कर अपने काडर या ट्रोल आर्मी के सैनिकों के बीच पेश कर देते हैं जिनके पास इतिहास तो क्या किसी भी विषय का तर्कसंगत और नवीनतम ज्ञान नहीं है। केवल सत्ता से उनकी नजदीकियां ही उनकी स्वीकार्यता व शक्तियों को बढ़ाती हैं। बाकी तो पढ़ने-लिखने के मामले में वहां शून्य बटे सन्नाटा है। पिछले दिनों एक छात्र नेता के शोध कार्य से यह बात सामने आई कि भारत 1947 में आजाद नहीं हुआ वरन उसे ब्रिटिशरों ने 99 साल की लीज़ पर दिया हुआ है। इसके कुछ ही दिनों बाद वाट्सएप विश्वविद्यालय की एक अभिनेत्री स्कॉलर ने सनसनीखेज खुलासा किया कि हमें असली आजादी 2014 में जाकर मिली है।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम की चमकदार विरासत में जिन्हें अंधकार नज़र आता है वे देश के मूर्धन्य व विश्वप्रसिद्ध इतिहासकारों को वामपंथी विचारधारा से प्रभावित, पश्चिमपरस्त, हिन्दूविरोधी, देशविरोधी, राष्ट्रद्रोही सब कुछ कह डालते हैं क्योंकि ये विद्वान वस्तुस्थिति को कहते-लिखते आये हैं। कुछ लोगों के मन में इस कदर नफरत बैठा दी गयी है कि वे उनकी विचारधारा से अलग होने के कारण एक जगविख्यात इतिहासवेत्ता को 'गुंडा' कहने से भी परहेज नहीं करते। राम पुनवानी, इरफान हबीब, रोमिला थापर, रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार सभी उनके निशाने पर हैं। मजेदार बात तो यह है कि इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाने वाले लोगों में अधिकतर वे हैं जिन्होंने मिडिल स्कूल के बाद इतिहास का 'इ' भी नहीं पढ़ा होता और न ही बाद में कभी इस विषय का स्वाध्याय किया होता है।
सहज ही सवाल उठता है कि आखिर सत्ता में बैठे लोग इस गपोड़ गैंग के अनर्गल प्रलाप पर चुप्पी साधकर उसे बढ़ावा क्यों देते हैं? इसका कारण यह है कि हमारे सम्पूर्ण इतिहास में हमेशा सत्ता के लिये या सत्ता के साथ बनी शक्तियां इस समय बेहद हीन भाव से ग्रस्त हैं क्योंकि देश की अग्निपरीक्षा के ज्यादातर समय में उनके द्वारा लिये गये निर्णय एवं किये गये कृत्य बाद में न केवल गलत साबित होते आये हैं बल्कि वे सकारात्मक परिवर्तनों के खिलाफ भी रहे हैं। अब सत्ता मिलने के बाद वे अपनी भूमिका को बदलना चाहते हैं।
इसलिये जेल में नाखूनों से कविताएं लिखने से लेकर पहले माफी मांगकर रिहा होने और तत्पश्चात औपनिवेशिक शासकों से पेंशन पाकर आजीवन चुप्पी साधने वाले कथित क्रांतिकारियों को कल्पना के आसमान में बुलबुल के पंखों पर सवार कराकर सैर पर ले जाना पड़ता है। किसी चंडुखाने में अफीम की पीनक में रचित ऐसी कथाएं भारत को इतिहास में तो नहीं वरन हमारे गल्प साहित्य के उस कालखंड में ले जा रही हैं जब अय्यारी, तिलिस्म, चमत्कार और कल्पनाओं पर आधारित रचनाओं का बोलबाला था। ऐसे वक्त में जब हमारे सभी युगांतकारी दौर में हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले आज भूगोल एवं इतिहास दोनों को ही बदलने की कोशिश कर रहे हैं, असली चिंता तो इस बात की होती है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को कैसा ऐतिहासिक बोध देने जा रहे हैं।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)